काग़ज़ों में लहलहाती उद्यानिकी, ज़मीन में जाकर देखो तो कुछ नहीं है पर सूखता भरोसा?

मध्यप्रदेश में उद्यानिकी अब खेतों में कम और पत्रकार वार्ताओं में ज़्यादा फल-फूल रही है। भोपाल के गुलाब उद्यान में आयोजित पत्रकार वार्ता में उद्यानिकी विभाग के मंत्री श्री नारायण सिंह कुशवाह ने जब विभाग की उपलब्धियाँ गिनाईं, तो लगा मानो प्रदेश की मिट्टी में अब सिर्फ बीज डालने की देर है और फसल अपने आप उग आएगी। फूलों का रकबा बढ़ गया, उत्पादन बढ़ गया, योजनाएँ सफल हो गईं और युवा आत्मनिर्भर हो गए कम से कम मंच से यही बताया गया। लेकिन मंच और मिट्टी के बीच की दूरी आज भी उतनी ही है, जितनी फाइल और फैसले के बीच।
गुलाब उद्यान उद्यान की विभाग फर्जी तरीकेसे मिट्टी और खाद का पता नहीं और बिल में कागज मेंतयार है
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश फूल उत्पादन में देश के अग्रणी राज्यों में शामिल हो चुका है। हजारों हेक्टेयर में फूलों की खेती हो रही है, उत्पादन लाखों टन बताया जा रहा है और गुलाब, गेंदा, रजनीगंधा जैसे फूलों से किसान समृद्ध हो रहे हैं। यह सब सुनकर लगता है कि उद्यानिकी विभाग ने सचमुच हरियाली की क्रांति कर दी है। लेकिन इसी हरियाली के बीच एक सच्चाई सूखे पत्ते की तरह खड़खड़ाती है वास्तविक आवेदकों की फाइलें आज भी धूल खा रही हैं।
बैतूल जिले के कुकरू क्षेत्र में कॉफी बागान लगाने के लिए लगभग दो वर्ष पहले दिया गया एक आवेदन आज भी विचाराधीन है। न स्वीकृति, न अस्वीकृति, न मार्गदर्शन बस सरकारी चुप्पी। यही वह चुप्पी है, जो हर पत्रकार वार्ता के शोर में दबा दी जाती है। सरकार कहती है कि वह वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा दे रही है, कॉफी जैसी फसलें भविष्य हैं, युवा आगे आएँ लेकिन जब युवा आगे आकर आवेदन करता है, तो व्यवस्था पीछे हट जाती है।
यह वही कॉफी है, जिसे नीति में भविष्य की फसल बताया जाता है। यह वही युवा है, जिसे भाषणों में प्रदेश का भविष्य कहा जाता है।।और यह वही सिस्टम है, जो भविष्य को फाइलों में कैद कर देता है।
उद्यानिकी विभाग ने ई-नर्सरी पोर्टल शुरू किया। यह बताया गया कि अब किसान घर बैठे पौधे खरीद सकते हैं, नर्सरियों की जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध है और पारदर्शिता बढ़ी है। सवाल यह नहीं है कि पौधे ऑनलाइन मिल रहे हैं या नहीं, सवाल यह है कि जब ज़मीन पर लगाने की अनुमति ही नहीं मिलेगी, तो पौधे गमले में सजावटी वस्तु बनकर रह जाएँगे।
पत्रकार वार्ताओं में आंकड़े हमेशा पूरे होते हैं। योजनाएँ सफल होती हैं, लक्ष्य पार हो जाते हैं और विभागीय ग्राफ ऊपर ही ऊपर चढ़ता है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर वही पुरानी तस्वीर है आवेदन लंबित, फाइलें घूमती हुई और जिम्मेदारी एक टेबल से दूसरी टेबल तक सरकती हुई। दो साल का समय किसी भी युवा के लिए मामूली नहीं होता। यह वह समय है, जिसमें उम्मीद या तो मजबूत होती है या पूरी तरह टूट जाती है।
सरकार बार-बार कहती है कि युवा धैर्य रखें। सवाल यह है कि धैर्य की भी कोई समय सीमा होती है या नहीं? अगर दो साल में एक साधारण निर्णय नहीं हो सकता, तो फिर उद्यानिकी विकास की तेज़ रफ्तार सिर्फ काग़ज़ों में ही क्यों दिखाई देती है?
आज हालत यह है कि योजनाएँ ज़्यादा तेज़ी से लॉन्च होती हैं, जितनी तेज़ी से उनका लाभ ज़मीन तक पहुँचता है। मंत्री की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में हर योजना सफल है, लेकिन तहसील और कलेक्टरेट में वही योजना “प्रक्रियाधीन” बन जाती है। यही वह विरोधाभास है, जो सरकारी दावों को कमजोर करता है।
यह किसी एक आवेदन तक सीमित नहीं है। यह उस सोच पर सवाल है, जिसमें योजनाओं की सफलता मापने का पैमाना आंकड़े बन गए हैं, इंसान नहीं। जब तक आवेदनकर्ता सिर्फ एक फाइल नंबर रहेगा, तब तक विकास सिर्फ प्रेस नोट में रहेगा।
अगर सरकार और उद्यानिकी विभाग सचमुच युवाओं को स्वरोज़गार देना चाहते हैं, तो उन्हें मंच से उतरकर फाइलों तक पहुँचना होगा। वरना यह स्थिति बनी रहेगी कि गुलाब उद्यान में हर साल पत्रकार वार्ता होगी, गुलाब खिले रहेंगे, कैमरे चलते रहेंगे लेकिन ज़मीन पर बैठे युवा यह सोचते रहेंगे कि क्या आत्मनिर्भरता भी किसी अनुमति की मोहताज होती है? आखिर में सवाल बहुत सीधा है अगर उद्यानिकी सच में फल-फूल रही है, तो फैसले क्यों मुरझा रहे हैं?
अगर योजनाएँ सफल हैं, तो आवेदन क्यों असफल हैं?
जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलेगा, तब तक यह मानना पड़ेगा कि मध्यप्रदेश में उद्यानिकी की सबसे अच्छी फसल आज भी काग़ज़ों पर ही उग रही है और ज़मीन, हमेशा की तरह, भरोसे के बीज के इंतज़ार में सूखी पड़ी
काग़ज़ों में लहलहाती उद्यानिकी, ज़मीन पर सूखता भरोसा?
मध्यप्रदेश में उद्यानिकी अब खेतों में कम और पत्रकार वार्ताओं में ज़्यादा फल-फूल रही है। भोपाल के गुलाब उद्यान में आयोजित पत्रकार वार्ता में उद्यानिकी विभाग के मंत्री श्री नारायण सिंह कुशवाह ने जब विभाग की उपलब्धियाँ गिनाईं, तो लगा मानो प्रदेश की मिट्टी में अब सिर्फ बीज डालने की देर है और फसल अपने आप उग आएगी। फूलों का रकबा बढ़ गया, उत्पादन बढ़ गया, योजनाएँ सफल हो गईं और युवा आत्मनिर्भर हो गए कम से कम मंच से यही बताया गया। लेकिन मंच और मिट्टी के बीच की दूरी आज भी उतनी ही है, जितनी फाइल और फैसले के बीच।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश फूल उत्पादन में देश के अग्रणी राज्यों में शामिल हो चुका है। हजारों हेक्टेयर में फूलों की खेती हो रही है, उत्पादन लाखों टन बताया जा रहा है और गुलाब, गेंदा, रजनीगंधा जैसे फूलों से किसान समृद्ध हो रहे हैं। यह सब सुनकर लगता है कि उद्यानिकी विभाग ने सचमुच हरियाली की क्रांति कर दी है। लेकिन इसी हरियाली के बीच एक सच्चाई सूखे पत्ते की तरह खड़खड़ाती है वास्तविक आवेदकों की फाइलें आज भी धूल खा रही हैं।
बैतूल जिले के कुकरू क्षेत्र में कॉफी बागान लगाने के लिए लगभग दो वर्ष पहले दिया गया एक आवेदन आज भी विचाराधीन है। न स्वीकृति, न अस्वीकृति, न मार्गदर्शन बस सरकारी चुप्पी। यही वह चुप्पी है, जो हर पत्रकार वार्ता के शोर में दबा दी जाती है। सरकार कहती है कि वह वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा दे रही है, कॉफी जैसी फसलें भविष्य हैं, युवा आगे आएँ लेकिन जब युवा आगे आकर आवेदन करता है, तो व्यवस्था पीछे हट जाती है।

यह वही कॉफी है, जिसे नीति में भविष्य की फसल बताया जाता है। यह वही युवा है, जिसे भाषणों में प्रदेश का भविष्य कहा जाता है।।और यह वही सिस्टम है, जो भविष्य को फाइलों में कैद कर देता है।
उद्यानिकी विभाग ने ई-नर्सरी पोर्टल शुरू किया। यह बताया गया कि अब किसान घर बैठे पौधे खरीद सकते हैं, नर्सरियों की जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध है और पारदर्शिता बढ़ी है। सवाल यह नहीं है कि पौधे ऑनलाइन मिल रहे हैं या नहीं, सवाल यह है कि जब ज़मीन पर लगाने की अनुमति ही नहीं मिलेगी, तो पौधे गमले में सजावटी वस्तु बनकर रह जाएँगे।
पत्रकार वार्ताओं में आंकड़े हमेशा पूरे होते हैं। योजनाएँ सफल होती हैं, लक्ष्य पार हो जाते हैं और विभागीय ग्राफ ऊपर ही ऊपर चढ़ता है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर वही पुरानी तस्वीर है आवेदन लंबित, फाइलें घूमती हुई और जिम्मेदारी एक टेबल से दूसरी टेबल तक सरकती हुई। दो साल का समय किसी भी युवा के लिए मामूली नहीं होता। यह वह समय है, जिसमें उम्मीद या तो मजबूत होती है या पूरी तरह टूट जाती है।
सरकार बार-बार कहती है कि युवा धैर्य रखें। सवाल यह है कि धैर्य की भी कोई समय सीमा होती है या नहीं? अगर दो साल में एक साधारण निर्णय नहीं हो सकता, तो फिर उद्यानिकी विकास की तेज़ रफ्तार सिर्फ काग़ज़ों में ही क्यों दिखाई देती है?
आज हालत यह है कि योजनाएँ ज़्यादा तेज़ी से लॉन्च होती हैं, जितनी तेज़ी से उनका लाभ ज़मीन तक पहुँचता है। मंत्री की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में हर योजना सफल है, लेकिन तहसील और कलेक्टरेट में वही योजना “प्रक्रियाधीन” बन जाती है। यही वह विरोधाभास है, जो सरकारी दावों को कमजोर करता है।
यह किसी एक आवेदन तक सीमित नहीं है। यह उस सोच पर सवाल है, जिसमें योजनाओं की सफलता मापने का पैमाना आंकड़े बन गए हैं, इंसान नहीं। जब तक आवेदनकर्ता सिर्फ एक फाइल नंबर रहेगा, तब तक विकास सिर्फ प्रेस नोट में रहेगा।
अगर सरकार और उद्यानिकी विभाग सचमुच युवाओं को स्वरोज़गार देना चाहते हैं, तो उन्हें मंच से उतरकर फाइलों तक पहुँचना होगा। वरना यह स्थिति बनी रहेगी कि गुलाब उद्यान में हर साल पत्रकार वार्ता होगी, गुलाब खिले रहेंगे, कैमरे चलते रहेंगे लेकिन ज़मीन पर बैठे युवा यह सोचते रहेंगे कि क्या आत्मनिर्भरता भी किसी अनुमति की मोहताज होती है? आखिर में सवाल बहुत सीधा है अगर उद्यानिकी सच में फल-फूल रही है, तो फैसले क्यों मुरझा रहे हैं?
अगर योजनाएँ सफल हैं, तो आवेदन क्यों असफल हैं?
जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलेगा, तब तक यह मानना पड़ेगा कि मध्यप्रदेश में उद्यानिकी की सबसे अच्छी फसल आज भी काग़ज़ों पर ही उग रही है और ज़मीन, हमेशा की तरह, भरोसे के बीज के इंतज़ार में सूखी पड़ी है।
