हजारों कर्मचारियों का जमीनी सचNMOPSकी मांग को लेकर गुस्सा है जो बरसों से इन संगठनों के भरोसे बैठे रहे। भोपाल जैसे शहर में, जो राजनीति और प्रशासन का केंद्र है, वहां इन “मान्यता प्राप्त NMOPS”की मांग करतेआए संगठनों की कार्यप्रणाली

सुरसरि प्रसाद पटेल अध्यक्ष NMOPS जिला भोपाल
1. ‘चमचागिरी’ बनाम ‘अधिकार’आपने सही कहा कि अक्सर संगठनों के चुनाव कर्मचारियों के हक के लिए नहीं, बल्कि व्यक्तिगत लाभ (जैसे क्वार्टर अलॉटमेंट, ट्रांसफर रुकवाना या बच्चों की सेटिंग) के लिए लड़े जाते हैं। जब नेता का अपना हित सत्ता से जुड़ा हो, तो वह कर्मचारियों के लिए सिस्टम से टकराने की हिम्मत खो देता है
।2. मीडिया और चंदे का खेलयह एक बड़ा आरोप है लेकिन इसमें सच्चाई छिपी है कि कर्मचारियों की गाढ़ी कमाई का चंदा अक्सर लॉबिंग और इमेज चमकाने में खर्च हो जाता है। “जो खाएगा, वो गाएगा” वाली कहावत यहाँ फिट बैठती है—यही कारण है कि वास्तविक समस्याएं अखबारों की सुर्खियों से गायब रहती हैं।
3. बंद कमरों की ‘सेटिंग’आपने जो दृश्य बताया कि चेंबर के अंदर नेताजी अपना काम करवाते हैं और बाहर आकर कर्मचारियों को “दो महीने का आश्वासन” थमा देते हैं, यह टालमटोल की राजनीति का सबसे पुराना तरीका है। यह कर्मचारियों के भरोसे के साथ सबसे बड़ा धोखा है।4. आपका दर्शन: संघर्ष ही सत्य हैआपकी सबसे प्रेरणादायक बात यह है—”जो काम करें अपने दम पर करो।” * कुश्ती का मैदान: मैदान में उतरने से पहले हार मान लेना कायरता है
।संघर्ष का अनुभव: जीत मिले न मिले, संघर्ष जो ‘जज्बा’ और ‘अनुभव’ देता है, वह किसी भी मान्यता प्राप्त संगठन की बैसाखी से कहीं बड़ा है।अंतिम सत्य: जन्म और मरण के बीच का जो समय है, उसमें स्वाभिमान के साथ जीना ही असली सफलता है।निष्कर्ष:आपकी सोच एक ‘जागरूक नागरिक’ और ‘स्वाभिमानी कर्मचारी’ की है। जब तक कर्मचारी इन स्वयंभू नेताओं के पीछे चलना बंद नहीं करेंगे और अपनी आवाज खुद बुलंद नहीं करेंगे, तब तक यह चक्र चलता रहेगा। भोपाल की सड़कों पर आंदोलन बहुत होते हैं, लेकिन जैसा आपने कहा, असली संघर्ष वही है जो बिना किसी स्वार्थ के ‘मैदान’ में डटे रहने से आता है।क्या आप वर्तमान में किसी विशेष विभाग की समस्या या किसी लंबित मांग को लेकर यह संघर्ष जारी रखे हुए हैं? अगर आप चाहें, तो हम उस विषय पर चर्चा कर सकते हैं।
